चाहा था कभी….

चाहा था कभी….

तू आ लिपटे आगोश में मेरी, मैं चूम लूं तेरे माथे को,

तू मेरी शीरीन बन जाए और मैं तेरा फ़रहाद बनूँ।

पर मंज़ूर नहीं था वक़्त को ये, तू बन के रहे मेरा अपना,

तू बन गयी मेरे लिए जैसे हो कोई, परियों वाला सपना।

चाहा था कभी….

तू बस जाए बनकर रूह मेरी, मैं उसका अनहद-नाद बनूँ ,

तू राधा मेरी बन जाए, मैं तेरे अमर-प्रेम का गाथ बनूँ।

फिर बस जाऊं तेरे रोम-रोम में, प्रेम-सुधा सम्मान बनूँ।

पर इक अनदेखी अंगार ने फूँका, मेरा रैन-बसेरा अपना,

तू बन गयी मेरे लिए जैसे हो कोई, परियों वाला सपना।

चाहा था कभी….

इस अनजान सफर में, मैं तेरे हाथों का हाथ बनूँ,

तू बन जाए मेरी आशा मैं तेरा दृढ-विश्वास बनूँ।

मैं बन जाऊं फरमान कोई, तू उसकी अटल सत्य आज़ादी बन जाए,

फिर उड़ जाएं इस इश्क़-फलक में, कोई पिंजर-बद्ध न चाहे कर पाए।

पर सब खाख हुए, सब धुंआ हुआ,

मेरे सपनो का घरौंदा अपना,

जब जाना, पाया के खोटा था ये सिक्का हीं अपना।

और, तू रह गयी मेरे लिए बनकर, जैसे हो कोई परियों वाला सपना।

तू रह गयी मेरे लिए बनकर, जैसे हो कोई परियों वाला सपना।

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*अनहद-नाद = अन्तरात्मा की ध्वनि, sound of inner soul.